-भगवती सूत्र पर आधारित प्रवचन का पंचम दिवस
-उच्च गति की प्राप्ति के लिए सम्यक् चारित्र और सहनशीलता आवश्यक
-कालूयशोविलास का स्थानीय भाषा में वर्णन श्रद्धालुओं को कर रहा आकर्षित
छापर, चूरू ,19 जुलाई। जन-जन को सन्मार्ग दिखाने वाले, जन-जन की चेतना को धर्म से भावित बनाने के लिए तथा मानव-मानव के कल्याण के समर्पित जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी राजस्थान के चूरू जिले के छापर नगर में चतुर्मास कर रहे हैं। आचार्यश्री के चरणरज का स्पर्श पाकर यहां की रेतिली धरती भी मानों स्वर्ण की चमचमा उठी है। यहां के वातावरण में वर्तमान में धर्म, आस्था, श्रद्धा व विश्वास की ऐसी सुगंध फैली है कि हर कोई यहां अनायास ही खींचा चला आ रहा है। देश-विदेश के कोने-कोने में बसे छापर के लोग आचार्यश्री के दर्शन, सेवा और उपासना के लिए अपने नगर में आ चुके हैं। उनके नगर में आने से विरान पड़े घरों की रौनक भी लौट आई है। कभी सूर्य के ताप से तपती तो कभी सर्दी से ठुठरती यह धरती वर्तमान में आचार्यश्री महाश्रमणजी के पावन चरणों का स्पर्श पाकर ताप और ठिठुरन से मुक्त सौम्यता की अनुभूति कर रही है। छापरवासियों पर विशेष कृपा करते हुए आचार्यश्री ने अपने नियमित प्रवचन को भगवती सूत्र पर आधारित कर दिया है, ताकि जनमानस को जीवन का अच्छा सन्मार्ग प्राप्त हो सके। वहीं अष्टाचार्य कालूगणी के जीवनवृत्त कालूयशोविलास के गायन और स्थानीय व्याख्यान से मानों छापरवासी आचार्य कालूगणी के जीवनकाल के सभी प्रसंगों को साक्षात् अनुभव कर रहे हों।
मंगलवार को आचार्यश्री ने भगवती सूत्र में आधार पर उपस्थित लोगों को पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि एक प्रश्न किया गया है कि दुनिया में मनुष्य और तीर्यंच जो असंयमी हैं, अव्रती हैं वो मरने के बाद देवगति में जा सकते हैं अथवा देव बन सकते हैं क्या? इसका उत्तर देते हुए बताया गया है कि कुछ मनुष्य और तीर्यंच असंयमी होने के बाद भी देवगति को प्राप्त कर सकते हैं और कई नहीं भी कर सकते हैं। कई ऐसे मनुष्य अथवा जीव होते हैं तो गांव, नगर अथवा आश्रम आदि में रहते हैं। उनके जीवन में कोई त्याग नहीं होता तो भी वे अकाम निर्जरा कर लेते हैं।
जिस प्रकार एक सैनिक देश की सुरक्षा के लिए कभी गर्मी को सहन करता है, वर्षा और सर्दी को सहन करता है, ड्यूटी करते वक्त कभी भूख तो कभी प्यास को भी सहन कर लेता है। कहीं मच्छरों के परिषह को भी सहता है। उसी प्रकार मजदूर भी काम करते वक्त कभी धूप को सहता तो कभी प्यास और भूख को सहन कर लेता है। परिवार से दूर होते हैं तो सहज संयम भी हो जाता है। बैल, भैंसा, हाथी ऊंट, गदहा आदि जीव भी बोझ ढोते हैं, वे भी कभी भूख, प्यास को सहन करते हैं, मार भी कभी सहते हैं। घर से दूर होना, संयम हो जाने और सहन करने से उन सभी को अकाम निर्जरा हो जाती है, जिसके कारण उन्हें देवगति का बंध भी हो सकता है। वे व्यंतर जाति के देव बन सकते हैं। धर्म को ज्यादा नहीं जानने के बाद भी वे ज्यादा पाप नहीं करते और उनकी अकाम निर्जरा होने से वे देवगति की प्राप्ति कर सकते हैं। कोई लम्बी बीमारी में भी कष्ट को सहन करता है, उसे झेलता है तो वह भी देवगति को प्राप्त कर सकता है। सम्यक् चारित्र हो और सहन कर लिया तो उच्च गति की प्राप्ति हो सकती है।
आचार्यश्री ने कालूयशोविलास के गायन और स्थानीय भाषा में व्याख्यान देते हुए आचार्य कालूगणी की दीक्षा प्रसंग, मुनि अवस्था व अपने आचार्यों के साथ विहार की स्थिति का वर्णन किया। स्थानीय भाषा में कालू जीवन चरित्र को श्रीमुख से श्रवण कर जन-जन प्रमुदित नजर आ रहा था। कार्यक्रम के दौरान श्रीमती मंजूदेवी दुधोड़िया ने अठाई की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। उपासक श्रेणी को शिविर के संदर्भ में आचार्यश्री ने उपसंपदा के प्रदान की।