बारहव्रती श्रावकों को सुमंगलसाधना की भी दिखाई राह
-आचार्य डालगणी की मुनि कालू से हुई वार्तालाप के प्रसंग को आचार्यश्री ने किया व्याख्यायित
-दूसरों को सहयोग व स्वयं का निरंतर विकास करती रहे उपासक श्रेणी: आचार्यश्री
छापर, चूरू, 25 जुलाई। जन-जन को सन्मार्ग दिखाने वाले, लोगों को नित नई नवीन प्रेरणा प्रदान करने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी वर्तमान में छापर चतुर्मास के दौरान श्रद्धालुओं को नियमित रूप से भगवती सूत्र के माध्यम से नित नई प्रेरणा प्रदान कर रहे हैं। नवीन प्रेरणा के साथ-साथ श्रीमुख से कालूयशोविलास का सुमधुर गायन और राजस्थानी भाषा में व्याख्यान भी मानों श्रद्धालुओं को मानसिक तृप्ति प्रदान कर रहा है। वर्ष 2022 छापरवासियों के लिए मानों बाह्य और आंतरिक रूप से आह्लाद प्रदान करने वाला बन रहा है। एक ओर जहां वर्षों बाद राजस्थान में श्रावण महीने में औसत से अधिक आसमान से वर्षा हो रही है, जो यहां की मरुधरा को अभिसिंचन प्रदान कर रही है तो दूसरी ओर 74 वर्षों बाद मरुधरा में रहने वाले श्रद्धालुओं के मानवता के सूख चुके बीजों को अभिसिंचन प्रदान कर पुनः नवांकुरित कर रहे हैं।
सोमवार को छापर चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर में बने प्रवचन पंडाल में उपस्थित श्रोताओं को मानसिक अभिसिंचन प्रदान करते हुए मानवता के मसीहा शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपने मंगल प्रवचन में कहा कि पूर्वकृत मोहनीय कर्म का उदय होता है तो उस समय कोई जीव आध्यात्मिक विकास कर सकता है क्या? उत्तर दिया गया कि वह विकास कर सकता है। उसका विकास वीर्यभाव में कर सकता है। जैन तत्त्वज्ञान में आठ कर्म बताया गया है। उनमें चारित्र और सम्यक्त्व को विकृत करने वाला कर्म मोहनीय कर्म होता है। मोहनीय कर्म के दो भाग हैं- दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। मोहनीय कर्म के उदयकाल में भी आत्मा विकास कर सकती है, क्योंकि मोहनीय सघन अथवा हल्का भी हो सकता है। विकास के तीन भाग हैं-बालवीर्य, बालपंडितवीर्य, और पंडितवीर्य। जीव में अव्रत और अविरति होती है अथवा संयम नहीं होता है तो वह बालवीर्य की अवस्था में होता है। इसमें प्रथम चार गुणस्थान के जीव आते हैं। जीव मिथ्यात्वी हो सम्यक्त्वी दोनों ही आते हैं।
आचार्यश्री ने आगे कहा कि श्रावक अपने जीवन में निरंतर विकास करने का प्रयास करना चाहिए। यदि कोई श्रावक वर्षों से बारहव्रत का पालन कर रहा है तो उसे आगे विकास के लिए सुमंगल साधना करने का प्रयास करना चाहिए। हो सके तो जीवन में उससे भी आगे बढ़ने का प्रयास हो। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और साधना का विकास होता रहे। चतुर्मास का समय इसके विकास का अच्छा अवसर होता है। साधु-संतों से प्रेरणा लेकर जीवन में संयम, त्याग, तपस्या करने का प्रयास करना चाहिए। जीवन जितना त्याग और तपस्या बढ़े तो मोक्ष की दिशा में गति हो सकती है। शनिवार की सामायिक का अच्छा क्रम बने। मकान, दुकान और यात्रा के दौरान यदि रेलवे स्टेशन पर हो तो भी सामायिक की जा सकती है। चलती ट्रेन में सामायिक नहीं करनी चाहिए। अपने बच्चों को भी अच्छे संस्कार देने का प्रयास हो। मोहनीय कर्म को हल्का करते हुए भौतिकता से मुक्तता की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री ने कालूयशोविलास के माध्यम से आचार्य डालगणी की मुनि कालू से हुए विविध बातों का वर्णन किया। आचार्यश्री ने आचार्य डालगणी के अनेक क्षेत्रों में हुए चतुर्मास आदि का भी रोचक ढंग से वर्णन किया। वहीं आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में 18 जुलाई से प्रारम्भ उपासक प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने वाली उपासिका श्रीमती संतोष बोथरा, उपासक श्री सरत बोथरा, संयोजक श्री सूर्यप्रकाश श्यामसुखा व महासभा के महामंत्री श्री विनोद बैद ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने उपासक श्रेणी को पावन आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा कि यह शिविर प्रशिक्षण के लिए उपयोगी है। यह जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के तत्त्वावधान में पोषित और विकसित हो रही है। इससे जुड़कर सेवा और स्वयं की साधना का भी विकास करने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने उपासक श्रेणी को चारित्रात्माओं से रहित अपने आसपास के क्षेत्रों में संथारे के प्रत्याख्यान व उस दौरान वहां सहयोग देने की प्ररेणा भी प्रदान की। साध्वी केवल्यशाजी ने भी अपनी श्रद्धासिक्त अभिव्यक्ति दी।