बीकानेर, 20 जुलाई। श्री जैन शान्त-क्रान्ति श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने बुधवार को सेठ धनराज ढढ्ढा की कोटड़ी में चल रहे स्वर्णीम दीक्षा पर्व के चातुर्मास के नित्य प्रवचन मे पुण्य, पाप,रोग और राग तथा शांति के बारे में प्रवचन देते हुए कहा कि महापुरुष फरमाते हैं, संसार में चार तरह के मानव होते हैं। कुछ मानव नाम के लिए जीते हैं, कुछ काम के लिए, कुछ आराम के लिए और कुछ परमधाम के लिए जीते हैं। यह मानव की चार श्रेणियां होती है। । इन चार श्रेणियों में हम किस श्रेणी के लिए जीते हैं, यह हमें तय करना होता है।
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि चार श्रेणियों में जो तीन श्रेणी है नाम, काम और आराम, इन श्रेणियों में जीने वाले साधारण मानव होते हैं लेकिन जो चौथी श्रेणी में जीवन जीेते हैं वह सर्वश्रेष्ठ होते हैं। महाराज साहब ने कहा कि परमधाम के लिए जीने वालों का जीवन ही उत्कृष्ट होता है।
महाराज साहब ने बताया कि एक शिष्य ने गुरु से पूछा ‘पुण्य क्या है..?’ गुरु ने कहा वत्स पुण्य जीवन का सच्चा साथी है। पुण्य साधना का बल है, प्रगति का फल है और सफलता का फल है। आचार्य श्री ने कहा कि एक प्रश्न है पुण्य कब किया जाए..?, इस पर उन्होंने बताया कि जीवन में पुण्य से बड़ा कोई साथी नहीं है। जब तक हाथ में लाठी ना आए और देह की माटी ना बने इससे पहले पुण्य अर्जन कर लेना चाहिए। महाराज साहब ने कहा कि पुण्य स्वार्थी नहीं होता है, अगर आपने धर्म किया है तो पुण्य आपके साथ रहेगा। जैसे आपकी छाया आपके साथ हर पल रहती है ठीक वैसे ही पुण्य सदैव आपके साथ रहता है।
महाराज साहब ने कहा कि एक शिष्य ने गुरु से पूछा कि रोग क्या है..?, इस पर महाराज साहब ने कहा कि गुरु ने बताया तन की और मन की विकृति ही रोग है। अगर तन हमारा प्रकृति के साथ जीता है तो हमें आरोग्य बना देता है। इसलिए हमारा लक्ष्य भोग नहीं, योग होना चाहिए, हमारा लक्ष्य वासना नहीं उपासना होना चाहिए। महाराज साहब ने कहा कि जितना ध्यान योग, उपासना, साधना में रहता है उतनी ही साता बढ़ती है। हम आरोग्य रहते हैं। महाराज साहब ने एक अन्य प्रश्न शांति का आधार क्या है..?, इस पर उन्होंने बताया कि स्वयं से दोस्ती करना साधना है। महापुरुष कहते हैं, स्वयं से दोस्ती करोगे तो शांति मिलेगी, दुनिया से दोस्ती करना अशांति प्राप्त करना है। लेकिन सब दुनिया से दोस्ती करते हैं, स्वयं से दोस्ती नहीं करना चाहते और यही अशांति का कारण है। आचार्य श्री ने कहा कि शांति चाहिए तो साधना करनी होगी, महाराज साहब ने कहा कि पुण्य की उपस्थिति में बड़ी से बड़ी समस्या छोटी बन जाती है और पुण्य की अनुपस्थिति हो तो छोटी से छोटी समस्या भी बड़े रूप में सामने आकर खड़ी हो जाती है। इसलिए जब तक जीवन रूपी दीप में आयुष रूपी तेल है और सांस रूपी बाती जल रही है, जितना पुण्य कमा सकते हो, कमा लो, जीतना ध्यान सामायिक में लगा सकते हो, लगाओ, सुनो, सुनोगे तो समझ में आएगा और जब समझ में आएगा तो करोगे, करने से धारण होगा। व्याख्यान में उपस्थित संत, महासती एवं श्रावक श्राविकाओं ने आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब के साथ ज्ञान भजन ‘साधना ही शांति का आधार है, धर्म बिन यह जिंदगी बेकार है, दूसरों की दोस्तों हम देखते, क्या नहीं खुद दोष के भंडार है’ का सामूहिक संगान किया। श्री जैन शान्त-क्रान्ति श्रावक संघ के अध्यक्ष विजय कुमार लोढ़ा ने बताया कि प्रवचन विराम पश्चात महाराज साहब ने श्रावक-श्राविकाओं को तेला, आयम्बिल, उपवास, एकासना करने वालों को आशीर्वाद दिया। साथ ही 24 जुलाई को होने वाले सामूहिक दयाव्रत तथा 29 जुलाई को महासती नानुकंवर म.सा. की स्मृति दिवस पर होने वाले आयम्बिल कार्यक्रम की जानकारी दीदी गई! आचार्य श्री विजयराज जी म. सा. के दर्शनलाभ और प्रवचन तथा मंगलिक का लाभ लेने के लिए नागौर, कर्नाटक, कुकनूर और मद्रास से श्रावक- श्राविकाऐं भी बीकानेर पधारे!
पुण्य के उदय पर जहाज उड़ते हैं
महाराज साहब ने कहा कि जैन धर्म में 63 शलाका पुरुषों में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलभद्र,9 वासुदेव और 9 प्रति वासुदेव हैं। इनमें शुभौम चक्रवर्ती थे। वे बहुत बड़े तपस्वी महापुरुष थे । एक बार वे अपने पांच सौ दीवानों के साथ हवाई यात्रा कर रहे थे। उनकी सेवा में दो हजार देवता लगे रहते थे। हजार दांए और हजार बांई और रहते थे। एक बार हवाई यात्रा में दो हजार देवता उनके चक्कों के स्थान पर लगे थे। उनमें से एक देवता के मन में आया कि जहां दो हजार देवता चक्के के स्थान पर लगे हैं। उनमें से एक मैं हाथ हटा लेता हूं तो क्या फर्क पडऩे वाला है। ऐसा मन में विचार आने पर देवता ने अपना हाथ खींच लिया। इस प्रकार यही सवाल सभी देवताओं के मन में उठा और सभी ने एक-एक कर हाथ खींच लिए। ऐसा करने पर शुभौम चक्रवर्ती का हवाई जहाज जो गहरे समुन्द्र के बीच उड़ रहा था, वह नीचे गिरा और समुन्द्र में पांच सौ दीवानों सहित समा गया और सबकी जल समाधी हो गई। ऐसा होने के बाद देवताओं ने विचार किया कि ऐसा कैसे हुआ..?, भगवान से जब पूछा गया तो इसका कारण उन्होंने बताया कि उनके पुण्य का क्षय हो गया, इसलिए उनका जहाज डूब गया। महाराज साहब ने कहा कि शुभौम चक्रवर्ती के साथ जब तक पुण्य था, जहाज उड़ रहे थे, देवता सेवा में लगे थे। लेकिन जैसे ही पुण्य का क्षय हुआ , देवता का साथ छूट गया और उड़ता हवाई जहाज भी डूब गया। पुण्य के अभाव में जब शुभौम चक्रवर्ती का जहाज डूब सकता है तो आप और हम क्या हैं। इसलिए इस भव से पार पाना है तो पुण्य का उदय करो, पुण्य का अर्जन करो।