बीकानेर, 19 जुलाई। जैन श्वेताम्बर खरतरगच्छ संघ की मनोहरश्रीजी म.सा की सुशिष्या साध्वीश्री मृगावतीश्रीजी ने मंगलवार को रांगड़ी चौक के सुगनजी महाराज के उपासरे में )चातुर्मासिक प्रवचन व ज्ञाता धर्म आगम सूत्र का वाचन विवेचन करते हुए कहा कि पूर्वकृत दोषों व पापों का मन, वचन, काया से पश्चाताप करना, पाप कर्मों से बचना और आत्मचेतना और आत्मरमण साधना प्रतिक्रमण है।
उन्होंने कहा कि प्रतिक्रमण से आत्मभाव विलय होकर आत्म भाव की जागृति होती है। प्रमादजन्य दोषों से निवृत होकर आत्मस्वरूप् में स्थिरता की क्रिया को भी प्रतिक्रमण कहते है। प्रतिक्रमण भी छह आवश्यक अनुष्ठानों में से एक है। सामयिक (समभाव की साधन), चौवित्सव (24 तीर्थंकरों का स्मरण), साधु और साध्वीवृंद वंदन और आत्म निरीक्षण व पश्चाताप,कायोत्सर्ग (आत्मा का ध्यान) और प्रत्याख्यान यानि त्याग। प्रतिक्रमण में दो शब्दों का संयोजन है ’’प्र’’ का अर्थ है वापसी और अतिक्रमण का अर्थ है ’’उल्लंघन’’ । उल्लंघन से लौटना,पाप उदय से तिरस्कार करना ही प्रतिक्रमण है।
साध्वीजी ने कहा कि अनंतानुबंध व कषायों का प्रभाव जीवन पर्यनत रहता है। प्रतिक्रमण अनंतानुबंध कम को तोड़ता है। नियमित, पाक्षिक, चौमासी व संवत्सरि प्रतिक्रमण में शुद्ध भाव से मन, वचन व काया से कर्म बंधन नहीं बांधने, जाने-अन्जाने में हुए पापों का प्रायश्चित करें तथा आईन्दा पाप कर्म नहीं करने का संकल्प लें। नियमित प्रतिक्रमण करने वाला नरक व निगोद की यात्रा से मुक्त होता है तथा अपने आत्म व परमात्म स्वरूप को पहचान कर मोक्ष के मार्ग की ओर अग्रसर होता है।